मनुष्य

प्रत्येक मनुष्य विशिष्ट भावनाओं से भरा है गुणों की ओर उसका प्राकृतिक झुकाव है और शाश्वत्व से वशीभूत है। सबसे दुखी दिखने वाला व्यक्ति भी अपनी आत्मा में इन्द्रधनुषी वातावरण रखता है जो शाश्वत्व के विचार, सौंदर्य प्रेम और धार्मिक भावनाओं से भरी हुई है। यदि लोग अपने भीतर के इस आधारभूत तत्व को विकसित कर सकें तो वे मानवता के सर्वोच्च स्थान तक उठकर शाश्वत्व को प्राप्त कर सकता हैं

लोग अपने अस्तित्व के नश्वर और भौतिक पहलू के आधार पर नहीं बल्कि आत्मा के शाश्वत्व के लिए आकर्षण और उसे प्राप्त करने की कोशिश के आधार पर सच्चे मानव होते है। इस कारण जो लोग अपनी अंतर्निहित आध्यात्मिक भाव को नहीं समझते और केवल भौतिक अस्तित्व पर ध्यान केंद्रित करते है वे कभी सच्ची शांति और संतोष नहीं प्राप्त कर सकते हैं।

सबसे सुखी और सौभाग्यशाली वे लोग है जो पारलौकिक संसार की तीव्र उत्कंठा से मतवाले रहते हैं जो लोग अपने शारीरिक अस्तित्व की संकुचित और घुटन भरी सीमाओं के भीतर स्वयं को बांध लेते हैं वे महलों मं रहने के बाद भी वास्तव में कारागार में है।

हमारा सर्वप्रथम और प्रधान कर्तव्य है स्वयं की खोज और तत्पश्चात हमारी प्रकृति के प्रकाशवान प्रिज्म के द्वारा ईश्वर की ओर बढ़ना। जो लोग अपने सच्चे प्रकृति से अभिज्ञ हैं और ईश्वर के साथ कोई संबंध नहीं बना सकते वे उस कुली की तरह जीवन बिताते है जो अपनी पीठ पर लाद कर ले जा रहे खजाने से अनजान है।

सभी मनुष्य मुख्यतः बेसहारा है। वैसे वे उस शक्तिशाली सृजनहार ईश्वर पर निर्भर रहते हुए अभूतपूर्व रूप से सामर्थवान हैं इसीलिए ये निर्भरता उन्हें एक बूंद से झरने में बदल देती है, एक कण को सूर्य में और एक भिखारी को राजा बना देती है।

अस्तित्व और घटनाओं की पुस्तक के साथय हमारी जान पहचान और हमारे और उस पुस्तक के बीच एकता की स्थापना हमारे हृदय में बुद्धिमत्ता की चमक का कारण है। उस चमक के प्रकाश से ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करते हैं और अपने अति आवश्यक प्रकृति को पहचानने लगते हैं। अंततः हम ईश्वर तक पहुंचते हैं। वैसे इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमें इस मानसिक यात्रा को शुरू करने से पहले मस्तिष्क से लिए हमें इस मानसिक यात्रा को शुरू करने से पहले मस्तिष्क से नास्तिकता और भौतिकवाद को निकाल देना चाहिए।

जो सच्चे मनुष्य हैं वे दूसरे जीवों से निजी कर्तव्य की चेतना और आवश्यकता की सीमाओं के भीतर वार्तालाप करते हैं। जो स्वयं को शारीरिक इच्छाओं और सुख के सामने छोड़ देते हैं और निषेधित क्षेत्र में चले जाते हैं वे कर्तव्य और इच्छा के बीच उचित दूरी और संतुलन नहीं बना पाते ।