वैज्ञानिक विषय
4.1 क्या यह उचित है कि लोग एचआईवी का संबंध दाबतुल-अर्ज यानि जमीन का दानव के साथ जोड़ते हैं, जो कयामत के समय की निशानियों में से एक होगा?
यह प्रश्न दो बातों को छूता है। पहला तो यह कि एड्स है क्या; और दूसरा यह कि एक मुसलमान एक मुसलमान के तौर पर इससे क्या समझता है या उस प्रकार की और बातें। आईए हम पहली बात पर चर्चा प्रारंभ करते हैं।
एड्स क्या है?
यह एक विषाणु से पैदा होने वाली बीमारी है जो हमारे शरीर के अंदर की बीमारियों से लड़ने वाली प्रतिरोधक क्षमता को नष्ट कर देती है। चूंकि उसके प्रभाव बेहद नाटकीय होते हैं और हमेशा उसके खतरनाक परिणाम सामने आते हैं, इसलिए इसे आज के युग में हैजा का नाम दिया गया है। यह बेहद तेजी से फैलता भी है, हर दस महीने बाद इससे प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या दोगुनी हो जाती है। सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि इसका आज तक उचित इलाज नहीं ढूंढा जा सका है।
एड्स के बारे में पहली बार 1981 मं दुनिया को पता चला। उस समय उसकी जानकारी बेहद सीमित थी। यानि लोगों को ठीक से मालूम नहीं था कि इस बीमारी की वास्तविक प्रकृति क्या है। लेकिन जैसे-जैसे लोगों को यह पता चला कि यह फैलता कैसे है और कैसे इंसान के शरीर को अपना शिकार बनता है तो लोगों को घबराहट और भय बढ़ाता गया।
इस प्रकार के किसी संक्रमण की जानकारी 80 के दशक में नहीं थी फिर इसकी उत्पत्ति कहां से हुई? कुछ लोगों ने दूर की कौड़ी भी निकाली कि इस रोग के विषाणु दुनिया में तब आए जब अमेरिका में जैविक हथियारों को बनाने के लिए जो अनुसंधान एवं परीक्षण किया जा रहे थे वह किसी कारणवश नाकामी का शिकार हो गए थे और उसी से यह विषाणु बाहर आया था। लेकिन इस आरोप को पुष्ट करने के लिए यह अफ्रीका के बंदर की किसी प्रजाति से आमने आया। यह यौन संबंधों के कारण सारी दुनिया में फैल गया, यानि एक अमेरिकी इसे अफ्रीका के जंगलों से लेकर आया जहां यह तेजी से फैलना शुरू हो गया। लेकिन वास्तविकता तो यही है कि किसी को मालूम नहीं है कि यह बीमारी कहां से आई।
लेकिन इस बात की जानकारी अवश्य आज उपलब्ध है कि यह बीमारी फैलती कैसे है। यह शारीरिक द्रव्यों के आपस में मिलने से फैलता है जिसमें स्त्री पुरूष यौन संबंध या समान लिंग यौन संबंध प्रमुख कारण है या फिर एक ही सूई से कई लोगों का एक साथ दवाईयां लेना इत्यादि। अगर किसी को दूषित खून चढ़ा दिया गया तो उससे भी यह बीमारी हो सकती है और एक गर्भवती महिला के द्वारा भी अपने नवजात शिशु को यह बीमारी हो सकती है।
आज यह निश्चित हो चुका है कि कुछ लोग हमेशा अपने साथ एचआईवी के विषाणु लेकर चलते हैं और वह दूसरों को उसकी चपेट में लाने की क्षमता रखते हैं। इसलिए इस बीमारी को लेकर हमारे अंदर काफी घबराहट और भय व्याप्त है।
एचआईवी दुनिया के कुछ भागों में महामारी का रूप ले सकती है और इसे अल्लाह का एहसान की कहा जाएगा कि इसकी चपेट में आने वालों में मुसलमानों की संख्या बेहद कम है। चाहे वह किसी मुस्लिम देश की बात हो या किसी अन्य देश। मुसलमानों का उत्तम चरित्र और जीवन गुजारने का स्वच्छ तरीके ने ही उन्हे इस बीमारी से दूसर रखने का काम किया है। एचआईवी एक प्रकार से आज के आधुनिक जमान की वह गंदगी है जो लोग अपने साथ लेकर घूमते दिखाई देते हैं। लेकिन यहां क्या नैतिक है और क्या अनैतिक, क्या उचित है और क्या अनुचित इस बहस में हम नहीं पड़ता चाहते। वास्तविकता तो यह है कि इस विषय पर अधिक बात करने में भी झेंप महसूस होती है। इसलिए मैं इस विषय पर बात करूंगा जो अच्छी सोच के लोगों की समझ में कुछ इज़ाफा कर सके।
आईए, अब दूसरी बात पर आते हैं। एक मुसलमान के तौर पर एक मुसलमान को एचआईवी से क्या अर्थ निकालना चाहिए?
एचआईवी जैसे दृग्विषय से कैसे निपटें
यह दुर्भाग्य की बात है कि कुछ लोगों ने एचआईवी को कुरआन में वर्णित किए गए जीवन दाबदतुल अर्ज के साथ जोड़ने की कोशिश की है यानि जिसका शाब्दिक अर्थ है जमीन का दानव। जो उस समय प्रकट होगा जब कयामत बेहद करीब होगी। हम लोग इस पर गहराई से विचार करेंगे मगर एक दूसरा सामान्य पहलू भी है जिस पर बात करना बहुत जरूरी है।
दाबतुल अर्ज का संबंध एजआईवी से जोड़ना इस बात की ओर संकेत करता है कि हम कुरआन और हदीस को व्याख्यायित करने के लिए किस प्रकार आधुनिक संदर्भों का ठीक प्रकार से इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं। एक विशेष उदाहरण से इस बात को समझा जा सकता है कि किस प्रकार जल्दबाजी में इसे व्याख्यायत करने की कोशिश की गई। पैग़म्बर मुहम्मद ने फरमायाः “कोढ़ से उसी प्रकार भागो जैसा कि तुम शेर से भागते हो।” लोगों ने कोढ़ के लिए जिस उपमा का इस्तेमाल किया यानि शेर का, वह इसलिए कि इस बीमारी के विषाणु तेजी के साथ हमला करते हैं। लेकिन गौर से अनुसंधान करने पर पता चला है कि यह बात उतनी ठीक नहीं है। अब क्या एक मुसलमान इसे बुरा नहीं मानेगा कि जिस बीमारी को लेकर पैग़म्बर मुहम्मद ने उपमा का प्रयोग किया है वह आज उपयुक्त साबित नहीं हो पाया है।
इस प्रकार से यानि मतलब निकालना बेहद नुक्सानदेह हो सकता है जिस चीज के बारे में हमें कोई जानकारी ही न हो उसके बारे में राय कायम करना तो और भी खतरनाक है। इसके अलावा, कोई भी वैज्ञानिक खोज या अनुसंधान अंतिम नहीं है। न ही जिस प्रक्रिया को ही हम उचित बता सकते हैं। वैज्ञानिक इस बात को स्वीकार करते हैं कि अतीत एवं वर्तमान की गलतियों को धीरे-धीरे दुरूरत करना ही बेहतर है। न तो हद से ज्यादा सकारात्मक रूख अख्तियार किया जाना चाहिए और न ही उतना ही तर्कवादी बनना चाहिए। इसलिए कुरआन को जो भी उपलब्ध जानकारी है उसी की बुनियाद पर समझने की कोशिश की जाए। इसके नतीजे कल्पित एवं गलत भी साबित हो सकते हैं। आज जितनी संख्या में किताबें लिखी गई हैं हो सकता है कि भविष्य में उनकी प्रमाणिकता पर संदेह किया जाए या उसके नतीजों पर हंसी उड़ाई जाए। लेकिन यह तय है कि हर ईमानदारी और लगन से किए गए काम का बेहतर नतीजा हाथ लगता है, लेकिन हमारी यह कोशिश और लगन अगर हमारे ईमान को कमजोर करने का ही कारण बनने लगे तो फिर उसमें हमें क्या लाभ हासिल होगा? आखिर अगर उसी बुनियाद पर सारे मुसलमानों का मजाक उड़ाया जाने लगे या उन्हें बेवकूफ और नासमझ ठहराया जाने लगे तो उसे क्या हासिल होगा? इसलिए मेरा यह माननात है कि जिन लोगों ने एचआईवी को अपने तौर पर समझने और समझाने की कोशिश की है उन लोगों ने गलती की है।
अकलमंदी का तक़ाजा यह है कि इस प्रकार के विषय के साथ काफी सूझबूझ एवं पारंपरिक इस्लामी दृष्टिकोण से निपटा जाए। तर्क चाहे जितने भी पुराने हों अगर वे बेहतर हैं तो हमेशा, ताजा, बेहतर और काबिले कबूल लगते हैं। उनके स्पष्टीकरण का दायरा एवं तरीका इस्लाम के सामान्य नियम से मेल खाता है ठीक इसी कारण से विशेष परिस्थिति में पाई जाने वाली हकीकतों को कबूल करने के योग्य होते हैं। इसलिए यह हमेशा उपयुक्त एवं रौशनी प्रदान करने वाले होते हैं। लेकिन ऐसे तर्क जो आधुनिक उपयुक्त एवं रौशनी प्रदान करने वाले होते हैं। लेकिन ऐसे तर्क जो आधुनिक हालात को सामने रख कर दिए जाते हैं (जो आरंभ में गलत नहीं होते।) वह पुराने पड़ जाते हैं।
पारंपरिक शिक्षा इस यक़ीन के साथ शुरू होती है कि अल्लाह एक है और मुहम्मद स.अ.व. उनके भेजे हुए पैग़म्बर हैं। दुनिया की किस प्रकार छोटी से छोटी चीज और बड़ी से बड़ी चीज हमारे ईमान को पुष्ट करती है। इस प्रकार अगर तर्क का तरीका अख्तियार किय जाए तो विज्ञान पर आधारित तरीके से बिल्कुल भिन्न होगा और फिर यह उम्मीद करें कि जिस तर्क की बुनियाद कमजोर हो और असुरक्षित हो उस पर ऐसी हमारत खड़ी की जाएउ जिससे अल्लाह और उसके भेजे हुए पैग़म्बर ने जो ज्ञान हमें बख्शा है उसे समझ सकें।
मैं इसमें शंका नहीं करता कि वे मुसलमान जो आज के ज्ञान और वर्तमान घटनाओं को कुरआन और हदीस के साथ जोड़ कर समझने की कोशिश करते हैं उनकी नीयत में कोई खोट है। ऐसा करके एक प्रकार से कुरआन और हदीस में अपने यकीन को और मजबूत करने का ही सबूत देते हैं। लेकिन अगर प्राकृतिक विज्ञान में हद से ज्यादा विश्वास के साथ यदि इन विषयों को समझने की कोशिश की जाए, सकारात्मक एवं तर्कवादी सोच के साथ, तो वे यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि कुरआन और हदीस आज के ज्ञान के विरोधाभासी नहीं हैं बल्कि वे आज के वैज्ञानिक अनुसंधानों से प्राप्त परिणाम के मुताबिक हैं। वे इस्लाम के बारे में उन विद्धानों, विचारकों और उनके छात्रों को बताने की उम्मीद करते हैं जिनके वैश्विक विचार वैज्ञानिक अनुसंधान के तंग दायरे तक ही सिमटे रहते हैं। इस तर्क के आधार पर हम कह सकते हैं कि उनकी जो भी कोशिशें होंगी उनको लेकर भविष्य में आलोचना का सामना करना पड़ेगा। फिर भी यह कहना कि उनका तरीका पूरी तरह नुकसानदेह है यह उचित एवं बेहतर फैसला नहीं माना जाएगा। कुरआन और हदीस की हिकमत और ज्ञान को समझने के लिए किसी बाहरी सहारे की जरूरत नहीं है, बल्कि उसकी प्रमाणिकता, उसकी मजबूती और उपयुक्तता अपनी जगह कुदरती तोर पर कायम है। इसलिए हमें ऐसे कोशिशों को अधिक आलोचना का शिकार नहीं बनाना चाहिए जो इस्लाम की पूर्ण एवं प्रमाणित सच्चाईयों और अस्पष्ट वैज्ञानिक सच्चाईयां है उनके बीच के अंतर को समझने में बाधा आने लगे। हमें यह चाहिए कि हम कुरआन और हदीस को ऐसे वैज्ञानिक आंकड़ों के आधार पर समझने की कोशिश न करें क्योंकि समय के साथ ये सारे आंकड़े बदल भी सकते हैं।
आईए अब हम अपनी बात का रूख एचआईवी की ओर मोड़ते हैं कि आखिर उसका दाबतुल अर्ज से संबंध है भी या नहीं।
दाबतुल अर्ज
यह शब्द कुरआन और हदीस दोनों में मिलता है। दाबा उसको कहते हैं जो जमीन पर रेंगता है या अपने पैरों पर चलता है। कुरआन में अल्लाह ने जमीन पर चलने वाले सभी जीवों को दाबा की श्रेणी में रखा हैः
अल्लाह ने हर जानदार चीज को पानी से पैदा किया हैः उनमें कुछ तो ऐसे है जो अपने पेट के बल चलते हैं: कुछ दो पैरों पर चलते हैं; और कुछ चार पैरों पर। अल्लाह जो चाहता है पैदा करता है। क्योंकि हर चीज के ऊपर अल्लाह ही का जोर है (24:45)
इस प्रकार अगर कुरआन की ऊपरलिखित आयत को सामने रख कर बात की जाए तो इंसान जमीन पर जितने तरह के जीवों के बारे में जानता है वे सब दाबा की श्रेणी में आएंगे चाहे वह सूक्ष्म जीवाणु हो या फिर डाइनासोर। लेकिन फिर भी बहुत से जीव ऐसे हैं जिनके बारे में हम कुछ नहीं जानते और बहुत से ऐसे जीव हैं जिसे अल्लाह भविष्य में पैदा करेगा। जैसे वह चाहेगा। एचआईवी वायरस जिससे एड्स होता है, हो सकता है कि उन जीवाणुओं में हों जिनके बारे में हमें हाल ही जानकारी प्राप्त हुई हो।
कुरआन में एक दूसरी जगह बताया गया है कि जब अल्लाह चाहता है तो जमीन पर रहने वाले प्रत्येक जीव के लिए उसकी रोजी मुहैया कराता है। उदाहरण के तौर परः
जमीन पर चलने वाला ऐसा कोई जीव नहीं है जिसक रोजी अल्लाह के जिम्मे न हो।........ (हूद 11:6)
दुनिया में बहुत से ऐसे जीव हैं जो अपनी रोजी उठाए नहीं फिरते। अल्लाह ही उन्हें और तुम्हें रोजी प्रदान करता है।........ (अनकबूत 11:6)
दुनिया में बहुत से ऐसे जीव हैं जो अपनी रोजी उठाए उठाए नहीं फिरते। अल्लाह ही उन्हें और तुम्हें रोजी प्रदान करता है।....... (अनकबूत 29:60)
लेकिन जिस दाबा का जिक्र किया गया है वह कुरआन की इस आयत में है जो नमल अध्याय में मौजूद हैः
जब अल्लाह का हुक्म उनके खिलाफ आ पहुंचेगा तो फिर जमीन से एक दानव यानि दाबा पैदा करेंगे जिनसे उनका सामना होगा। यह उनसे बातें करेगा, क्योंकि इंसान ने हमारी भेजी हुई निशानियों में यकीन नहीं किया है। (नमल 27:82)
कुरआन में जिस कब की ओर इशारा किया गया है जब यह समय आएगा कि दाबतुल अर्ज पैदा होगा तो यह वह समय होगा जब अल्लाह ने जितने जीवन इस जमीन पर पैदा किए हैं वे सब अपनी जिंदगी अपने अपने ढंग से गुजार चुकें होंगे और अल्लाह के सारे पवित्र नाम और काम जाहिर किया जा चुके होंगे और उसके बाद जब जमीन की कोई जरूरती बाकी नहीं रहेगी तब ऐसा होगा। अल्लाह ने यह कुछ इसलिए किया ताकि लोग उसे जाने और उसके गुणों को पहचानें। जब खुदा का कोई नाम लेने वाला नहीं रहेगा और लोग उसकी निशानियों से फिर जाएंगे, उसके द्वारा भेजी गई सच्चाईयों को नकारने लगेंगे, जब ईमान वाले धीरे-धीरे इस जमीन से रूख्सत हो जाएंगे, एक दिन जब उनमें किसी एक का भी वजूद बाकी नहीं रहेगा और इस फितनापरवर दुनिया कोई जरूरत बाकी नहीं रह जाएगी तो फिर अल्लाह आदेश जारी करेगा कि इंसानों के साथ इस दुनिया को भी फ़िना कर दिया जाए। लेकिन अपने इस आदेश को पूरी तरह पूरा करने से पहले वह दाबतुल अर्ज का पैदा करेगा जो इंसान से बातें करेगा। अब इसका बात करने का तरीका क्या होगा। क्या यह बोल कर बातें करेगा या इशारों में करेगा या कोई और तरीका अख्तियार करेगा लेकिन यह भी बता देगा कि अब उसके बाद किसी का ईमान लाना उसके लिए फायदेमंद नहीं रहेगा। उसका प्रकट होना और न ही इस बात का इशारा करेगा कि अब न तो लोगों के ईमान में इजाफा ही होगा और न ही ऐसे लोग ही सामने आएंगे। बल्कि उनके कुक में दिन व दिन और इजाफा ही होता जाएगा यहां तक कि उन पर कयामत आ जाएगी। उसके साथ ही इस आयत में इस बात की ओर भी इशारा किया गया है कि दाबतुल अर्ज के प्रकट होने के तुरंत बाद ही कयामत कायम हो जाएगी। कयामत के कायम होने से पहले दुनिया वालों के लिए यह एक पहली बड़ी निशानियों में से एक होगी।
दाबतुल अर्ज संभवतः कयामत के समय प्रकट होने वाली दस बड़ी निशानियों अंतिम बड़ी निशानी के तौर पर जाहिर होगी।2 यह आयत इस बात की ओर भी इशारा करती है कि उसके बाद दुनिया में सारे इस्लामी काम काज बंद हो जाएंगे बल्कि उनका अंत हो जाएगां और उनके बाद कोई दूसरा ईमान वाला सामने नहीं आएगा। जो लोग अल्लाह पर थोड़ा बहुत ईमान भी रखते होंगे तो उनका यकीन पुख्ता नहीं होगा। एक स्पष्टीकरण यह दिया जाता है कि विज्ञान ने और तकनीक ने आशातीत रूप से तरक्की की है और साथ ही इसमें और भी इजाफा होगा और इंसान जो नित नए दिन एक नए अविष्कार के लिए कोशिशें करता रहता है, वह उत्तम प्रकार के रोबोट पैदा कर चुके होंगे और उनसे प्रशासनिक काम भी लिए जा रहे होंगे और दुनिया ऐसे लोगों से भर जाएंगी जो यह कहेंगे कि “हमने इससे पैदा किया है।” जो लोग इस प्रकार का दावा करेंगे उनका अल्लाह पर यकीन कभी पुख्ता नहीं होगा। इस आयत में यह सारी बातें शामिल की जा सकती है।
हदीस में भी दाबतुल अर्ज को साधारण अर्थ में ही इस्तेमाल किया गया है जैसा कि कुरआन में किया गया है। हदीस में बताया गया है कि यह इस प्रकार के कार्य करेगाः “दाबा जाहिर होगा, यह उत्तर की ओर यात्रा करेगा और हर ओर दिखाई देगा।”
आईए अब इस पर विचार करते हैं कि क्या इसका एचआईवी से कोई संबंध हैः
क्या एचआईवी को किसी भी प्रकार से दाबतुल अर्ज के साथ जोड़ कर देखा जा सकता है?
पहली बात, हो सकता है कि यह बात सच हो कि एचआईवी दाबतुल अर्ज के पीछे सारे तथ्यों में से किसी एक पहलू या भाग से संबंध रखता हो लेकिन यह कहना उचित नहीं होगा कि यह दाबतुल अर्ज है। अगर एचआईवी को केवल संदर्भ मात्र के तौर पर इस्तेमाल किया गया है, तो फिर इस कुरआन की आयत को सीमित करके देखने जैसा होगा और फिर एचआईवी समस्या से पूरी तरह निपटने में अक्षम होगी। अतीत में इंसानों को बेशुमार किस्म की बीमारियों का सामना करना पड़ा है, उससे असंख्य लोग मारे गए हैं और बाद में उसका इलाज भी ढूंढा गया है, लोगों को उससे मुक्ति भी मिली है और उसको भूल भी चुके हैं। अबू दाऊद हजरत उम्मे सलमा के हवाले से एक हदीस बयान करते हैं, “अल्लाह ने ऐसी कोई बीमारी पैदा नहीं की जिसका उसने कोई इलाज पैदा न किया हो।”3 एक दूसरी हदीस में यह बताया गया है कि केवल मौत और बुढ़ापे का कोई इलाज मुमकिन नहीं है।4 इसका मतलब यह है कि आज न कल एड्स का इलाज ढूंढ लिया जाएगा और लोगों को इससे लाभ मिलेगा।
दूसरी बात, बहुत से देशों में एड्स के बहुत सारे मामले आ चुके हैं लेकिन फिर भी जिस प्रकार अतीत में टीबी ने महामारी का रूप धारण किया था, उसी प्रकार इसने महामारी का रूप अभी नहीं अपनाया है। और न ही आज जितने लोग कैंसर से प्रभावित हैं उतनी संख्या में लोग इस बीमारी से प्रभावित दिखाई देते हैं। हो सकता है कि इन बीमारियों को भी दाबतुल अर्ज के साथ जोड़ कर देखा गया हो। हो सकता है कि मरने वालों की संख्या को देखते हुए ऐसा मान लिया गया है। हम चाहें तो टीबी और कैंसर जैसी बीमारी को दाबतुल अर्ज का हिस्सा बता कर तर्क देने की कोशिश करें लेकिन फिर भी यह दाबतुल अर्ज से जुड़े सारे तथ्यों में से केवल उसका एक छोटा सा भाग होगा। टीबी और हैजा को इलाज द्वारा दूर भगा दिया गया है और अल्लाह ने उसके इलाज का तरीका भी इंसानों को बता दिया है और आज दाबतुल अर्ज से उसका कोई संबंध दिखाई नहं देता। कुद कैंसर ऐसे भी हैं कि अगर उसे आरंभिक अवस्था में पता लगा लिया जाए तो उसका इलाज संभव है। हो सकता है कि एचआईवी का भी पूरी तरह इलाज सामने आ जाए। अतीत में हैजा लोगों के लिए एक बुरे सपने के समान था। अमवास में, हैजे से 30 हजार मुसलमान मारे गए थे।5 लेकिन आज शायद ही दुनिया के किसी भाग में इतनी बड़ी संख्या में किसी को मरने की कोई खबर आती है सिवाए इसके कि दुनिया में बड़ी भारी तबाही मचाई थी तो उसे दाबतुल अर्ज के साथ जोड़ कर देखा जाना चाहिए था लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ। अल्लाह ने उसके बदले इसका इलाज लोगों को बता दिया। आज जितनी संख्या में लोग कैंसर का शिकार हो रहे हैं वह एचआईवी की तुलना में दाबतुल अर्ज की श्रेणी में आने की अधिक कूवत रखता है। लेकिन चूंकि दोनों बीमारियों का किसी न किसी रूप में इलाज ढूंढ लिया गया है इसलिए दाबतुल अर्ज को सीमित अर्थ में व्याख्यायित करने की जरूरत नहीं है और ऐसा करके कुरआन और हदीस में अपने ईमान को कमजोर करने की जरूरत है।
एचआईवी हो सकता है कि दाबतुल अर्ज के सारे तथ्यों में एक छोटा सा पहलू मात्र हो या फिर दाबतुल अर्ज भविष्य में जो काम करेगा उसका एक हिस्सा मात्र हो। उसी प्रकार कैंसर भी वैसी ही चीज है और दाबतुल अर्ज को सीमित अर्थों में ही समेटता हैं लेकिन उसके दूसरी और दाबतुल अर्ज जो लोगों के ईमान के समाप्त हो जाने की एक बड़ी निशानी होगी, लेकिन हो सकता है कि विज्ञान और तकनीक के गलत इस्तेमाल से कुछ ऐसी चीजें प्रकट हों जो प्रकृति में बिल्कुल भिन्न हों। उनकी प्रकृति को ठीक प्रकार से समझ पाना इंसान के लिए बेहद मुश्किल होगा।
जैसा कि हम ने पहले भी बताया है कि दाबतुल अर्ज का प्रकट होना एक प्रकार से दुनिया के खात्मे और इस्लामी मूल्यों की समाप्ति की ओर संकेत करेगा। फिर भी कुरआन के 18वें अध्याय साफ में जो आयत बयान की गई है वह इस प्रकार हैः अल्लाह निश्चित तौर पर अपने नूर यानि प्रकाश अर्थात दीन को पूरा करके रहेगा। अब अगर दाबतुल अर्ज को वास्तव में प्रकट होना है तो यह हमारी उम्मीदों को बेहद नुकसान पहुंचाएगा। क्योंकि इसके आने से हमारा यकीन और ईमान का जाना यकीनी बताया गया है। उसके बाद दुनिया खत्म हो जाएगी और हम भी नहीं रहेंगे। लेकिन जैसा कि हम जानते हैं कि एक बार इस्लामी मान्यताओं का सारी दुनिया में भरपूर पैमाने पर उदय होगा और इस्लाम अपना उचित मुकाम हासिल करेगा और इस दुनिया में संतुलन स्थापित करने का काम करेगा, मुस्लिम पूरी दुनिया में अपनी नबी के आदेशों का पालन करते और कराते नजर आएंगे। इसलिए कम से कम अभी इस समय तो दाबतुल अर्ज के प्रकट होने की कोई संभावना नहीं है। यह जाहिर होगा तो कयामत के निकट के जमाने में जो काफिरों के लिए बेहद भयावह समय होगा। उसके विपरीत कोई भी राय कायम करना ईमान और यकीन के विपरीत बात होगी और हमारी उम्मीदों पर कुठाराघात के समान होगा।
अगर ऐसे मामले में अटकलबाजी की इजाजत दी जाए तो बहुत सी ऐसी चीजें हैं जिसे दाबतुल अर्ज की श्रेणी में डाला जा सकता है। तकनीकी तौर पर इंसान ने प्रकृति की नकल के तौर पर जो कुछ बनाया है या रोबोट, जो आज साइंस फिक्शन लेखकों का एक प्रमुख विषय बन गया है, जो यह मानते हैं कि एक समस ऐसा आएगा जब इंसान पर इन जीचों का प्रभुत्व कायम हो जाएगा। कुरआन इस बात की ओर इशारा करता है कि ऐसी बहुत सी चीजें हैं जिनका वजूद में आना अभी बाकी है और जिसकी प्रकृति के बारे में सिवाए अल्लाह के किसी को इसकी जानकारी नहीं है और इंसान के बस का है भी नहीं कि उसके बारे में जान ले। ये चीजें, इंसान जो कुछ सोचता है उससे बिल्कुल भिन्न होंगी और भिन्न रूप कार्य एवं व्यवहार करेंगीः यानि उनमें संवेदना, प्रेम और सहानुभूति का अभाव होगा, जैसे रोबोट, अगर यह एक दुश्मन के तौर पर काम करने लगे और इंसान की कोई बात न सुने तो फिर कोई चीज इसे बदल नहीं पाएगी।
ऐसी बातें सोचने पर चेतावनी की बू आती है, उन वैज्ञानिकों के लिए भी जो इस प्रकार की तकनीकों के विकास में दिन रात लगे हुए हैं, ऐसी भी संभावना है कि अगर इन अति विकसित रोबोटों को अंतरिक्ष में भेजा गया तो संभव है कि जो निर्देश उसे दिए जाएं उसके विपरीत जा कर काम करने लगे और अपने आस-पास की हर चीज को तबाह करने लगे। अगर चीजें वजूद में आ जाती हैं तो उसे दाबतुल अर्ज होने का एक प्रबल दावेदार माना जा सकता है।
लेकिन यह सब मनघड़ंत बातें हैं। हमे समझ से काम लेना चाहिए। स्वसंचालित, स्वनियंत्रित और स्वनिर्देशित मशीने या विकसित किए गए जीवाणु, रहस्मयी महामारियां, सूक्ष्म जीवाणु जिनका अभी भी दुनिया में आना बाकी है, घातक हथियारों के इस्तेमाल से जो बीमारियां सामने आएंगी, वे सब कुछ दाबतुल अर्ज के अंतर्गत आ सकती हैं। जो पहली बात इंसानी आत्मा की और उसके बाद शरीर की मौत ही करता है।
मुझे ऐसा मालूम होता है कि दाबतुल अर्ज पर इस प्रकार बातें करने से, पहली बात तो यह, कि इससे कुरआन और हदीस में जो कुछ बयान किया गया है उसको लेकर हमारा आदर बढ़ता है और दुसरी बात, उसका अर्थ भी कहीं किसी रूप में बाधित नहीं होता।
सारांशः जो लोग एचआईवी को इस्लामी स्रोतों के साथ जोड़ कर देखते हैं बिना गहराई से इस पर सोच विचार किए हुए वे अपनी पंशा को लेकर ईमानदारी मालुम नहीं होते। लेकिन इस प्रकार के बहुआयामी सवालों से जूझने के लिए केवल ईमानदारी एक पहलू के समान है; जिस प्रकार वे उसकी व्याख्या कर रहे हैं वह गलत और भ्रमित करने वाला है। व्यक्तिगत ईमानदारी एक बात है; कुरआन और हदीस की आवश्यक सच्चाईयों के प्रति अपनी वफादारी का इज़हार करना सर्वथा दूसरी बात है।
4.2 वीर्य बैंक एवं कृत्रिम वीर्यारोपण के बारे में आपकी क्या राय है?
वीर्य बैंकों की स्थापना इसलिए की गई है ताकि कृत्रिम रूप से वीर्यारोपण किया जा सके। पौधों और जानवरों के लिए इसे लंबे समय से प्रयोग में लाया जाता रहा है ताकि उच्च कोटि की नस्ल के पौधे और जानवर पैदा किए जा सकें। साथ ही उनकी नस्ल को बाकी रखा जा सके। लेकिन बड़े पैमानों पर इंसानों के लिए इसे हाल ही में इस्तेमाल में लाया गया है।
पौधों और जानवरों के साम्राज्य के लिए बीज एवं वीर्य नए जीवों के लिए तालिका एवं डॉटा बॉक्स की तरह से है। बीज जमीन में अंकुरित होते हैं और वीर्य पेट में। नए जीवों के पैदा करने में ये सार तत्व के तौर पर इस्तेमाल किए जाते हैं। इसके साथ ही न ही उन जीवों की उत्पत्ति को संभव बनाया जाता है बल्कि उनकी सुरक्षा और अस्तित्व को बनाए रखने की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है।
पौधों एवं जानवरों में जहां कृत्रिम बीजारोपण का बहुत महत्व है क्योंकि इससे उनकी प्रजातियों को सुरक्षित बनाए रखा जा सकता है और साथ ही उनमें नए-नए विकास भ किए जा सकते हैं मगर इंसानों में उसका इस्तेमाल कुछ निश्चित कानूनी प्रावधानों के अंतर्गत ही किया जा सकता है। उसके अलावा उसे प्राकृतिक नियम यानि फितरतुल शरीया के साथ ही लागू करने की जरूरत है।
पौधों और जानवरों में अगर ऐसा किया जाता है तो उसको हम बिना किसी तर्क एवं बहस के स्वीकार करने के लिए तैयार हैं। मगर इंसानों पर इसका इस्तेमाल कई कारणों से बेहतर नहीं है जैसे विरासत का मसला, शादी विवाह की बातें, परिवारिक रिश्ते इत्यादि जो एक नई ही परिस्थिति उत्पन्न करते हैं। इसलिए इन्हीं कारणों से निषेचण एवं प्रजनन को कुछ सीमाओं के अंतर्गत ही बांध कर रखा गया है और जिस रूप में अल्लाह ने इसे पैदा किया है इसी रूप में यह हमारे पास पहुंचा है सिवाए इतिहास के कुछ काल में जब इसका गलत इस्तेमाल देखा गया।
ऐसा इसलिए हुआ होगा क्योंकि इंसान अपनी असीम इच्छाओं से बंधा हुआ है या फिर हो सकता है कि उसके पीछे प्राकृतिक प्रवृत्ति रही हो। हम इस बात के सख्ती से कायल हैं कि पहली बार औरत और मर्द का मिलन कुदरती बंदिशों के साथ ही संभव हो पाया था। उस कानून के आरंभ से ही वंश की हिफाजत पांच मुल सिद्धांतों यानि उसूल ख़मसा के अंतर्गत आती रही है। बुनियादी सिद्धांत हमें यह बताता है कि वीर्य एवं पेट दोनों को एक सीमित दायरे में रह कर ही काम करना चाहिए और औरत मर्द की पहचान भले ही अलग हो लेकिन सांकेतिक रूप से ये एक बनाए गए है। इस गठबंधन से परिवार का एक तीसरा पहलू सामने आता है यानि बच्चा जो उस परिवार का असली वारिस कहलाता है। धर्म इस बंधन को शादी के रूप में देखता है। किसी भी परिवार को खड़ा करने के लिए यह सबसे मज़बूत नींव है।
गर्व एवं वीर्य का कोई भी संबंध शादी के बिना अनैतिक या व्याभिचार माना जाता है। इससे परिवार की तबाही देखने को मिलती है, बच्चे के साथ औरत को भी बड़े पैमाने पर शर्मिदगी एवं अपमान का सामना करना पड़ता है। इसलिए जितने भी ईश्वरी धर्म हैं वे सब शादी पर बल देते हैं वे इंसानों के लिए इसे आवश्यक मानते हैं। उसके दूसरी ओर, व्यभिचार को गुनाह माना जाता है और उसे इंसानों की अनियंत्रित एवं अतृप्त इच्छा की श्रेणी में रखा जाता है।
अगर निषेचण की प्रक्रिया किसी अनजान वीर्य से होती है तो क्या इसे वैद्य ठहराया जा सकता है? वास्तव में अगर एक बच्चा इस जरिये से पैदा होता है या फिर अनैतिक संबंध के कारण जन्म लेता है दोनों में कोई खास अंतर नहीं हैं क्योंकि दोनों ही परिस्थितियों में कोई कानूनी बाध्यता नहीं है और वंश की परंपरा को तोड़ा जाता है और परिवार का ढांचा चरमरा जाता है। उसके साथ कई प्रकार की कानूनी पेचीदगियां पैदा होती हैं जिस पा काबू पाना आसान नहीं होता। उदाहरण के तौर पर, विरासत का मसला, शादी की समस्या और परिवारिक रिश्ते की समस्या। इस कारण से यह कहा जा सकता है कि कृत्रिम रूप से बीजारोपण की समस्या ऐसी नहीं है जिसे बहुत हल्के से लिया जाए। इसके अलावा, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक कारणों से भी कई प्रकार के खतरे सामने आते हैं अगर एक पिता को यह पता चले कि उसका बच्चा उसके अपने वीर्य के फलस्वरूप पैदा नहीं हुआ है तो उसके प्रति उसके अंदर अजनबीयत का एहसास पैदा होगा और उसमें उस मासूम बच्चे को नुकसान उठाना पड़ेगा क्योंकि उसकी ठीक प्रकार से परवरिश नहीं हो पाएगी। वह हमेशा अपने उस बा पके साथ एक डर, भय और अनिश्चितता के माहौल में अपने को पाएगा। इस प्रकार से, इससे न केवल बच्चे पर उसका नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा बल्कि उसकी मां के ऊपर भी इसका गहरा प्रभाव पड़ेगा और उससे उनके आपस के रिश्तों में खटास आएगी। बच्चे को दोहरा बोझ उठाना पड़ेगा। वह अपने बाप से निकटता को कर्ज की निकटता समझेगा। उसे लगेगा कि मानों उसने उधार के रूप में ही एक बेटा होने का अवसर प्राप्त किया है। उसके अंदर ऐसी भावना इसलिए पैदा होगी क्योंकि वह अपने बा पके अंदर के बदले व्यवहार और उसके आचरण को करीब से देख और समझ रहा होगा।
वे यह भी पूछ सकते हैं कि “अगर वीर्य औरत के पति से लिया गया है, तो फिर क्या कृत्रिम बीजारोपण की इजाजत होगी।” इसका जवाब हां में बिना धार्मिक एवं कानूनी बाध्यताओं को ध्यान में रख कर कहना होगा। क्योंकि प्रश्न की प्रकृति हमसे प्राकृतिक रूप से ही जवाब की अपेक्षा करती है लेकिन उसके पीछे जो जनोत्तेजन है वह हमसे सावधानी की मांग करता है। आखिर उनको ऐसे अप्राकृतिक तरीके को चुनने की क्या मजबूरी रही जबकि एक प्राकृतिक तरीका मौजूद है? क्या अकलमंदी नहीं है कि हम अल्लाह के बताए कानूनों के तहत रह कर ही काम रकें और भौतिक नियम का पालन रके। प्राकृतिक नियम का पालन करना बेहद आवश्यक है। इस कारण से कृत्रिम बीजारोपण पूर्ण रूप से अप्राकृतिक है और जो संस्थान इसको मान्यता देते हैं या उसको आगे बढ़ाते हैं वे एक प्रकार से व्यभिचार को बढ़ावा देने वाले केंद्र माने जाएंगे।
उससे एक दूसरा सवाल पैदा हो सकता है। वे कह सकते हैं: “आप जो कुछ कहते हैं वह हो सकता है कि सच हो अगर पिता निषेचण के योग्य है और मां भी उसके योग्य है। ऐसी स्थिति में प्राकृतिक नियम का पालन किया जा रहा है। लेकिन अगर पिता ऐसा करने में अयोग्य है तो? फिर मैं उनसे पूछूंगाः “किसका वीर्य बीजारोपण के लिए इस्तेमाल किया गया है?” अगर पिता कमजोर है, वह नपंसुक है और उसका वीर्य भी कार्य करने योग्य नहीं है तो फिर निश्चित रूप से पिता के अंदर से लिया गया वीर्य अंडे को निषेचण नहीं कर पाएगा। ऐसी स्थिति में किसी गैर मर्द का वीर्य लिया जाएगा जो व्यभिचार की श्रेणी में आएगा। अगर स्थिति यह है कि औरत के पेट में किसी प्रकार की गड़बड़ी है या बाधा है तो उसमें विशेषज्ञ को दखलंदाजी करनी चाहिए। अगर उचित इलाज से औरत का पेट गर्भ धारण करने के योग्य हो जाता है जिसे कुरआन ने “ठहरने की एक मुस्तहकम यानि मजबूत जगह” (मरियम 23:13) से ताबीर किया है, तो यह आवश्यक हो जाता है कि प्राकृतिक नियम का पालन किया जाए। अगर पेट उस प्रकार कार्य करने के योग्य नहीं है जैसा कि उससे अपेक्षा की जाती है तो फिर कृत्रिम करने के योग्य नहीं है जैसा कि उससे अपेक्षा की जाती है तो फिर कृत्रिम बीजारोपण बेमानी हो कर रह जाता है। इस विषय को हल्के में लेना और यह कहना “कि पति से वीर्य लेने की इजाजत है।” भले ही तकनीकी रूप से ठीक हो, लेकिन यह त्रुटिपूर्ण फैसला है क्योंकि इसके गलत इस्तेमाल की पूरी संभावना बनी रहती है। वास्तव में मैं डरता हूं कि जो लोग इस प्रकार के प्रश्न सामने ले कर आते हैं वे चाहते हैं कि उनको ऐसा फैसला दे दिया जाए ताकि उसके गलत इस्तेमाल का दरवाजा उनके लिए खुल सके। बीर्य बैंक आज पूरी तरह काम कर रहे हैं और उनके दरवाजे हर किसी के लिए खुले हुए हैं भले ही वह इसको मानें या न मानें कि इस्लाम में कृत्रिम बीजारोपण की इजाजत दी गई है या नहीं।
प्राकृतिक नियम की दृष्टि से भी कृत्रिम बीजारोपण के ऊपर कई सवाल खड़े किए जाते हैं। उन पर बात करने से कई प्रकार की पेचीदगियां सामने आने लगती हैं इसलिए मैं उस बहस में पड़ना नहीं चाहूंगा। यह मेरा मैदान भी नहीं है। मैं इसे विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों एवं डाक्टरों के हवाले छोड़ता हूं। यही सबसे बेहतर तरीका है।
लेकिन इसमें कोई शंका नहीं है कि ऐसा प्रकृति के प्रतिकूल है। हर जीव इस इच्छा के साथ जीता है कि उसके बाद उसकी नस्ल बाकी रहेगी। उस परिणाम की प्राप्ति के लिए उन्हें क्षणिक सुख का भी अनुभव कराया जाता है। कोई भी जीव इस नियम को बदलना नहीं चाहेगा। इसलिए किसी का यह हक नहीं बनता कि इस प्राकृतिक नियम को कोई बदलने की कोशिश करे। उसे अवश्य ही एक शैतानी कोशिश कोशिश कर कर नजरंदाज कर देना चाहिए। यह तरीका फिर इंसान को पौधों एवं जानवारों की सतह तक ले जाता है और उसकी इंसानियत की पहचान को मिटाने का काम करता है। इसलिए चाहिए कि हर इंसान इस प्रकार के फितने से अपना बचाव करे। फिर भी लोग प्राकृतिक विज्ञान की बातों को जानने के लिए लालायित दिखाई देते हैं। उनको जल्दबाजी में तैयार की गई तकनीकों के पागलपन भरे जाल से बचा पाना संभव नहीं होगा। कुछ लोग निस्संदेह विज्ञान एवं इंसानों की उत्पत्ति के बीच बेकार का विवाद खड़ा करना चाहते हैं। उनकी यह कोशिश होती है कि विज्ञान एवं धर्म को एक दूसरे को एक दूसरे के विरोधी दिखाएं।
हम उम्मीद करते हैं कि जो लोग इस प्रकार की अचेतना के शिकार हैं वे जल्दी ही जागेंगे और सच्चाई को अपनी नजर से देखेंगे और विज्ञान एवं नैतिकता के बीच जो भी रूकावटें हैं उन पर बाबू पा लेंगे।
4.3 डार्विन के सिद्धांत को लेकर आमतौर पर इतना बल क्यों दिया जाता है, हालांकि डार्विन द्वारा दी गई बहुत सी अवधारणाओं को अब तक चैलेंज किया जा चुका है और उसे यहां तक कि नकारा जा चुका है?
शायद ही हमें कोई दूसरा सिद्धांत इस प्रकार का मिले, जितना कि डार्विनवाद है जिस ने केवल अनेक बार गलत साबित किया जा चुका है बल्कि उसे नकारा भी जा चुका है। फिर भी इसका भूत बार-बार खड़ा किया जाता है। कुछ वैज्ञानिका आज भी इसका जम कर समर्थन करते हैं; बहुत से दूसरे इसे सिरे से खारिज कर देते हैं, उसका मानना है कि यह सरासर भ्रांति के सिवाय कुछ नहीं है। ऐसा मालूम होता है कि वैज्ञानिक एवं बौद्धिक जगत में, डार्विनवाद कुछ समय तक इस बहस को बनाए रखेंगे, अभी और लाखों किताबें एवं लेख लिखे जाएंगे और यह बहस अनवरत रूप से चलती रहेगी।
साम्यवाद का एक विचारधारा के रूप में परास्त होना और एक राजनीतिक शक्ति के तौर पर अपनी हैसियत का खोना और भी आज अधिक स्पष्ट हो गया है जितना कि पूर्ण और पश्चिम में पहले भौगोलिक तौर पर दुरी पाई जाती थी लेकिन यह सांस्कृतिक विभाजन नहीं था। यह रूस के अंदर इस प्रकार का प्रयोग करना उचित था और है और उसके बहुत कसे सेटेलाइट राज्यों में पश्चिमी संस्कृति के परिवर्तन के रूप में न कि उसके विरोधी के रूप में। पश्चिम का जो कठोर नजरिया धर्म के प्रति है, जिसे रूसो एवं रोनोन से लिया गया है, उसको एक आवश्यक सामाजिक मिथ के तौर पर देखना था, एक प्रकार का धोखा जिसने सामूहिक जीवन के लिए सांस्कृतिक एवं सामाजिक संबद्धता का काम किया लेकिन उसका यथार्थ की दृष्टि से कोई आधार नहीं है। पूर्व का जो सख्त सामंतवादी नजरिया था, जिसकी बुनियाद ही धर्म के नकार पर रखी गई थी और जिसमें प्रत्यक्ष रूप से भौतिकवाद को स्वीकार किया गया था, उनके लिए यह बेहद उपयुक्त था कि वे डार्विनवाद का समर्थन करें और उसे पश्चिम में बौद्धिक बहस का हिस्सा बनाएं और उसे उचित सहयोग दें। लेकिन अगर उस पर समग्रता से विचार किया जाए, पश्चिमी संस्कृति की पूरी नींव ही डार्विनवाद पर रखी गई है। जो लोग मुस्लिम देशों में रहते हैं, वे इसी बात की ख्वाहिश रखते हैं कि पश्चिमी संस्कृति को बढ़ावा दें और उसे अपने विश्वविद्यालयों में बढ़ावा देते रहें और अपने शैक्षणिक संस्थानों में आमतौर पर जगह दें और डार्विनवाद को एक प्रतिपादित सच्चाई के तौर पर दूसरों तक पहुंचाने का काम करें और उसके फलस्वरूप धर्म को अवैज्ञानिक एवं गलत ठहराते रहें। निश्चित रूप से इस जहर का असर कुछ युवाओं पर होना अवश्यंभावी है। बहुत से उनमें यह विश्वास करने लगते हैं (हालांकि बहुत कम ही का यकीन उस पर बना रह पाता है) कि धर्म इंसान के लिए विरोधी नहीं है और जीवों की उत्पत्ति को लेकर जो स्पष्टीकरण दिए गए हैं उनमें डार्विनवाद अभी भी उन सब में बेहतर तर्क है जो आजादाना तौर पर इंसान अपने तर्क के द्वारा दे सकता है।
डार्विन के अनुसान, जमीन पर जीवन का उदय एक साधारण और एकल-कोशिका ऐंद्रिक रचना से हुई है जो बढ़ कर बहुकोशिका ऐंद्रिक संरचना में तब्दील हुई है और यह सब कुछ धीरे-धीरे आने वाले परिवर्तन के कारण हुआ है, जिसमें अनियमित परिवर्तन की प्रक्रिया शामिल है। ऐसा लाखों करोड़ों साल के अंदर हुआ है। अधिक विकसित विकासमूलक सिद्धांत रूपों के अनुसार, कि जमीन पर जितने प्रकार के भी जीव पाए जाते हैं उन सब का आधार जमीन में पाया जाने वाला एमिनो एसिड है। जो बाद में चल कर किसी प्रकार से एकल-कोशिका ऐंद्रिक रचना में तब्दील हो गया है। जैसे कि अमीबा और यह ऐंद्रिक रचना एक दूसरे से संपर्क स्थापित करते हुए और अरबों साल के वातावरण के प्रभाव के कारण, धीरे धीरे या यकायक कई प्रकार के जटिल बहु कोशिकीय जीवों में तब्दील हो गया है। उसके बाद फिर कमजोर जंतुओं ने जलीय जंतुओं को बढ़ाने का काम किया, उदाहरण के तौर पर मछली, उत्पत्ति जलथलचरों के बीच हुई और जिसने रेंगने वाले जलचरों को पैदा करने का काम किया; उनमें से आगे चल कर कुछ जलचर चिड़ियों के रूप में विकसित हो गए और उनमें से कुछ मैमल्स के रूप में विकसित हुए जिससे आगे चल कर इंसानों की उत्पत्ति हुई।
यह पूरी अवधारणा को कुछ अपूर्ण जीवाश्म के टुकड़ों के आधार पर आमतौर पर पेश करने की कोशिश की जाती है हालांकि जो असली जीवाश्म के आंकड़े हैं उसके आधार पर इस विचार को पुष्ट नहीं किया जा सका है जहां तक हमारी जानकारी का सवाल है, सिवाय इस वैज्ञानिक अवधारणा के कोई दूसरी ऐसी अवधारणा नहीं है जिसमें आपस में जुड़ने वाली कड़ियों का सर्वथा अभाव है। वैज्ञानिकों ने जो कुछ भी अवलोकन के जरिये अविष्कार किया है वह वास्तविक विकासमूलक सिद्धांत से बिल्कुल विपरीत है। जीवाणुओं के अनेक प्रकार होने के बावजूद वे किसी और कीड़े मकौड़े वह उसी प्रकार से रहते आ रहे हैं, यानि कोकरोच और कीड़े मकौड़े वह उसी प्रकार से रहते आ रहे हैं जितना कि 350 मिलियन साल पहले से आर्थोपोडा, स्पोंजेज और समुंद्र में रहने वाले केकड़े उसी रूप में मौजूद हैं; जैसा कि उन्हें 500 मिलियन साल पहले के जीवाश्म में पाया गया था। उसी प्रकार सांप, छिपकिलियां, चूहे और दूसरे अनेक जीव, वे बदल कर किसी और जीव के रूप में सामने नहीं आए हैं और न ही घोड़े के खुर या इंसान के पांव बदल कर कुछ और हो गए हैं। इंसान जैसा कि हम कहते हैं कि उसी रूप में आज भी मौजूद है जिस रूप में उसे पहली बार पैदा किया गया था।
परिवर्ती ऐंद्रिक रचना का कोई उदाहरण मौजूद नहीं है जैसा कि इस सिद्धांत के अनुरूप उसे साबित करने के लिए जरूरी है, जैसा कि उदाहरण के तौर पर, जानवरों के पैर विकसित हो कर चिड़ियों के पर के रूप में तब्दील हो गए हों। न ही सैद्धांनिक रूप से इसका स्पष्टीकरण दिया गया है कि ऐसा करने में हजारों सालों की नस्लों का गुजरना जरूरी है। आखिर भला कोई भी जानवार जो पूर्ण रूप से विकसित न हो वह कैसे अपना अस्तित्व बनाए रख सकता है यानि जिनके पास दो पांव या पर न हों।
बहुत से तर्क एक गलत उदाहरण को पेश करने का काम करते हैं कि किस प्रकार घोड़े की उत्पत्ति एक कुत्ते जैसे छोटे जीव से हुई है जिसको पहले पांच अंगूठे थे जो बाद में बदल कर एक खुर में तब्दील हो गए। वास्तव में जो विकासमूलकवादी हैं उनको अपने दावों को सच करने के लिए कोई पर्याप्त सबूत नहीं है। न ही उन्हें पूरी दुनिया में ऐसा कोई जीवाश्म मिला जिससे अपने विकासमूलक सिद्धांत को प्रमाणिक कर सकें। यह अब भी पूरी तरह एक कोल कल्पित धारणा बन कर रह गई है। वे उन जानवरों की बात करते हैं जो अतीत में रहते थे और दावा करते हैं कि उनके पूर्वज आज के आधुनिक घोड़े हैं। लेकिन आधुनिक घोड़ों और उस जमाने के जानवरों में वे कोई संबंध स्थापित नहीं कर सकते। केवल वे ऐसा अपने सिद्धांत के आधार पर करने की कोशिश करते हैं। यह सर्वथा पुष्ट वैज्ञानिक तर्क के खिलाफ बात है। हम यह कहेंगे कि अल्लाह ने उस जमाने में उन जानवरों को पैदा किया जो बाद में चल कर इस दुनिया से नापैद हो गए और उनका कोई वजूद बाकी नहीं है। आखिर हमें इन दो प्रकार के जीवों को एक साथ जोड़ने की क्या जरूरत है? आज भी हमारे जमाने में भिन्न-भिन्न प्रकार और प्रजातियों के घोड़े पाए जाते हैं।
वैज्ञानिकों ने मधुमक्खी एवं शहद का वजूद हजारों हजार साल पहले दुनिया में मौजूद पाया। मधुमक्खियां उसी रूप में तब भी शहद और छत्ते बनाती थीं जैसा कि आज वे करती हैं उन छत्तों का आकार और उसकी बनावट वैसी ही है जैसा कि आज से हजारों लाख साल पहले हुआ करता था। इस प्रकार न तो मधुमक्खियों की सोचने समझने की शक्ति में कोई परिवर्तन देखा गया और न ही उनके तौर तरीके में।
फिर इंसानों की उत्पत्ति को लेकर क्या तर्क मौजूद है? बहुत ही गलत तरीके से इसे हमेशा व्याख्यायित करने की कोशिश की जाती रही है। कुछ वैज्ञानिकों ने कुछ हड्डियां प्राप्त कर लीं या यहां तक कि किसी बंदर के दांत और उसके बाद उसके आधार पर उसके शरीर का हाव भाव, मांस, चमड़ा, बाल, संरचना इत्यादि का निर्धारण किया गया और उसे इंसानों के साथ मिला कर देखा गया।
पिल्ट डाउन इंसान, वैज्ञानिकों द्वारा दिए गए सबसे भ्रमित सिद्धांतों में ऐ एक है जो इंसानों को लेकर देते रहे हैं। पिल्ट डाउन, इंग्लैंड में स्थित स्थान पर जो बंदर नुमा जीवाश्म मिले हैं जिसका पता 1912 में हुआ था उसे इंसानों के आरंभिक पूर्वज के साथ जोड़ कर देखा गया। जो चीजें सामने आईं उसके आधार पर यह भी कहा गया कि यहां आधुनिक इंसानों की खोंपड़ी है और बंदर के जबड़े हैं। बहुत वर्षों तक पिल्ट डाउन में जो जीवाश्म प्राप्त हुए वे मानव शास्त्र वैज्ञानिकों के बीच विवाद का कारण बने रहे। 1953 में जब वैज्ञानिकों ने गहनता से उसकी जांच की तो पाया कि यह सब झूठ का पुलिंदा के अलावा और कुछ नहीं था।
इवोलूशनिष्ट, कोलिकेंथ को वर्णन किया करते थे, यह एक प्रकार की मछली थी जो काफी मात्रा में 400 मिलियन साल पहले पाई जाती थी। उसे जमीन पर रहने वालो जानवरों के साथ जोड़ कर देखा जाता था क्योंकि उसके फिन इंसानों के हाथ पैर जैसे थे। यह भी सिद्धांत प्रस्तुत किया गया कि खाने की तलाश में वह जमीन पर आ जाया करती थी, काफी दिनों तक उसका वहां निवास रहता था और यहां तक कि 70मिलियन साल पहले यह पूर्ण रूप से गायब हो गई। लेकिन आश्चर्य की बात यह कि 1938 मे बहुत सी कोलिकेंथ मछलियां मदगासकर के तट पर मछुआरों को दिखाई दी थीं। वे मछलियां अपने पूर्वजों के बिल्कुल करीब की थीं और पूर्ण रूप से गहरे समुद्र के अंदर अपने को रहने के योग्य बना लिया था जैसा कि उसकी प्रकृति थी और उसमें कोई भी बदलाव नहीं देखा गया था। कोलिकेंथ को बहुत सी पाठ्य पुस्तकों से इसी कारण उत्पत्ति वाले अध्याय से हटा दिया गया था। क्योंकि यह एक प्रकार से उन ऐंद्रिक रचना की श्रेणी में आ गई थी जिसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं देखा गया।
इवोलूशनिष्ट यह दावा भी करते हैं कि जीवन अचानक आने वाले बदलाव के अंतर्गत अपने को विकसित करते रहते हैं। उनकी नई कोशिकाएं एक ओर जहां बनती हैं और अगर जेनेटिक कोड जो साधारणतयः किसी जीव की सारी कोशिकाओं में एक समान होता है, उसको भिन्न तरीके से या गलती से कॉपी कर ली गई है और इस प्रकार उनमें बदलाव आते हैं। इस प्रकार के बदलाव जो लंबे अंतराल के बाद अपना रूप दिखाते आते हैं। हो सकता है कि ऐसा कुछ बाहरी कारणों से हुआ हो, यानि भूगोल, जलवायु या ग्रह के पड़ने वाले प्रभाव यानि जमीन और सूरज की गर्दिश, या सूरज का विकरण या रासायनिक प्रदूषण इत्यादि। तर्क यह दिया जाता है कि जो परिवर्तन खतरनाक नहीं होते जो कामयाबी के साथ प्रजनन करते हैं (जो अपने वातावरण के हिसाब से तुरंत अपने को ढ़ाल लेते हैं) वे उत्पत्ति की प्रक्रिया में यकायक तौर पर सामने आ जाते हैं और फिर जीवों के बदलाव को बढ़ा देते हैं।
लेकिन अभी हाल के जो अनुसंधान सामने आए हैं उससे तो यही साबित हुआा कि इस प्रकार के बदलाव हमेशा खतरनाक रहे हैं, यहां तक कि घातक और उसके बहुत सारे मनोवैज्ञानिक प्रभाव उस जीवन पर पड़ते हैं। उनके द्वारा यह नहीं कहा जा सकता कि किसी नए जीव को पैदा करने में सहायता पहुंचाई हो या उसको गति प्रदान की हो, यानि कुत्ते को घोड़ा बना देना या बंदर से इंसान बन जाना। इस प्रकार की अचानक आई तब्दीली के लिए और फिर उसे कामयाबी के साथ पदस्थापित होने के लिए इतना समय चाहिए जितना कि कई दुनियाओं के वजूद में आने में लग सकता है।
बहुत सालों से काफी अनुसंधान कबूतरों, कुत्तों और मक्ख्यिों पर किया जात रहा है। हालांकि कुछ मनोवैज्ञानिक तब्दीलियां एक समान प्रजाति के जानवारों में आती रहती हैं (उदाहरण के तौर पर कई नस्ल के कुत्ते और कबूतर पाए जाते हैं) लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि एक प्रजाति के अंदर होने वाली इस प्रकार की कोई भी तब्दीली किसी प्रजाति की उत्पत्ति को बढ़ावा देती है। सालों साल तक डरोसोफिला पर जो अनुसंधान किए जाते रहे हैं उसके परिणाम स्वरूप सिवाए डरोसोफिला के और कुछ हाथ नही लगा है।
दो प्रजातियों के बीच अलबत्ता मिलान करके एक हाईब्रिड प्रजाति कृत्रिम रूप से विकसित की जाती रही है। यानि घोड़े और गदहे के संबंध से जिसके फलस्वरूप खच्चरों की उत्पत्ति हुई। लेकिन उनमें नपुसंकता देखी गई। काफी लंबे शोध के बाद वैज्ञानिकों ने यही नतीजा निकाला कि एक प्रजाति से किसी दूसरी प्रजाति को पैदा करना संभव नहीं है। दो भिन्न-भिन्न प्रजातियों के बीच ऐसी रूकावअ और बाधाएं होती हैं जिसे पार करना असंभव है। यही सामान्य समझ के अनुसार बात लगती है और वैज्ञानिक तर्क के अनुरूप भी। आखिर कैसे एक जीव जो इंसान की तरह का हो, जिसके अंदर उच्च कोटि का दिमाग हो और उन्नत तरीके से अपने हाव भाव को प्रदर्शित करता हो, समय एवं सभ्यता के किसी भी मोड़ पर आकर, अपने भाषाई एवं सांस्कृतिक भाव प्रदर्शन को लेकर, अपनी धार्मिक मान्यताओं को लेकर या अपनी इच्छाओं एवं आरजुओं को लेकर, यह कहा जा सकता है कि इनकी उत्पत्ति बंदरों से हुई है? इसे सोचना भी मुश्किल मालूम होता है और उस पर यकीन करना और तर्क के आधार पर तर्कसंगत ठहराने की बात तो छोड़ दी दीजिए।
फिर भी आज के आधुनिक भौतिकवाद के लिए उत्पत्ति का वही सिद्धांत मुख्य सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया जाता है खासतौर पर मार्क्स एवं ऐंजिल के यहां। यह एक प्रकार से अंधभक्ति है, पक्षपात है और अंधविश्वास है। भौतिकवादी उससे अपने लाभ के लिए गहराई से चिपटे दिखाई देते हैं। उनका यह जोर रहता है कि हर बदलाव के लिए भौतिक कारण जिम्मेदार हैं। इस तंग आईने से देख कर वे कभी हकीकत की तरह तक नहीं पहुंच सकते। वे यह सोचने के लिए तैयार नहीं हैं कि कोई सूपर नेचुरल ताकत है, अभौतिक शक्ति है जिसने इस जैविक दुनिया को जन्म दिया है। यह दुनिया बेहद रंगारंग और अपने जलवायु एवं वातावरण को लेकर उनमें काफी लचीलापन पाया जाता है।
उत्पत्ति के पर्याय के तौर पर जो चीज पेश की जाती है वह उसे आवश्यक रूप से इस दुनिया के पैदा करने वाले की ओर लेकर जाती है। केवल अल्लाह के वजूद को स्वीकार न करने के लिए जिद्द के तौर पर डार्विन के सिद्धांत को थोपा जाता है और उन्हें भय है कि अगर ऐसा किया तो स्वतंत्र विज्ञान और स्वतंत्र तर्क का किला भरभरा कर गिर जाएगा। व्यक्तिगत तौर पर कोई वैज्ञानिक विश्वासी हो सकता है यानि उसे ईश्वर के वजूद पर यकीन हो, लेकिन विज्ञान का मामला हमेशा कुफ्र का रहा है। यह अजीब बात है कि अपनी स्वतंत्र तर्क की रक्षा के लिए डार्विनवादी जो प्रायः भौतिकवादी होते हैं, वे हमेशा तर्क को नकारेंगे और गलत ठहराने की कोशिश करेंगे। लेकिन बहुत से वैज्ञानिकों ने काफी साहस का परिचय देते हुए इस सिद्धांत को चैलेंज किया है।
लेकिन खतरा यह है कि बहुत से ऐसे युवा जिनकी समझ अभी पूरी तरह पुख्ता नहीं हुई वे डार्विनवाद के इस बहकावे में फंस कर न रह जाएं क्योंकि ऐसा ही उन्होंने हर जगह सुना और पढ़ा है यहां तक कि अपनी पाठ्य पुस्तकों में भी। यहां पर एक तुर्की कहावत याद आती है जो इस स्थान पर बेहद उचित मालूम होती है, एक नासमझ इंसान एक मोती को बड़ी आसनी से एक कुंए में फेंक सकता है और चालीस अकलमंद इंसान उसको निकालने के लिए बेकार की कोशिश कर सकते हैं। लेकिन यह भी सच है कि झूठ की जिंदगी ज्यादा दिनों तक नहीं होती। सच्चाई तो यह है कि जीवों की उत्पत्ति को लेकर जो सच्चाईयां हैं या उन जीवों के जो वृहद रूप से बंटवारे हैं उसको आज तक नहीं समझा जा सका है। यह अति शिष्टता होगी अगर हम यह कहें, “हम उन जीवों को देख कर आश्चर्यचकित तो जरूर हैं मगर हैरत का इजहार करते हैं मगर उनके बारे में हमारा ज्ञान बहुत सीमित है, आखिर उनकी इतनी उन्नत भाषा का विकास कैसे हुआ, उनके विचार कैसे उन्नत हुए, संकेतों एवं प्रतीकों की भाषा कैसे विकसित हुई और धार्मिक नैतिकता एवं आध्यात्मिक चाह कैसे सामने आई।
लेकिन इसमें कोई शंका नहीं है कि डार्विन एक उच्च कोटि का वैज्ञानिक था जिसने जीवों का वर्गीकरण करने का काम किया है लेकिन यह ध्यान देने की बात है कि उसने प्रकृति का बड़ी गहराई से अवलोकन किया था।
उसकी चाहे जो भी सोच रही हो, अनुसंधान रहा हो, अवलोकन रहा हो, लेकन एक बात तो तय है कि उसने ईश्वर की समझ में इजाफा ही किया है जो इस दुनिया को रचने वाला और उसे नाना रूप देने वाला है। जिसने पूरी कायनात को सुंदर बनाया और उसमें गजब की समरसता पैदा की। जहां डार्विन की खोज ने ईमान को बढ़ाने का काम किया वहीं वह असली रास्ते से दूर चला गया।
अल्लाह कितना महान और उत्कृष्ट है। उसके हर काम में हमें एक व्यवस्था दिखाई देती है, हिकमत और बुद्धिमत्ता नजर आती है और जो कुछ हमें समझ प्राप्त हुई है वह सब उसकी ओर से हमें दिया अजीम नेमत है। लेकिन किसी को सही रास्ते पर ले जाना निश्चित रूप से उसके हाथ में है।
4.4 निश्चयात्मकता एवं तर्कवाद को लेकर हमारा क्या नज़रिया होना चाहिए जो पश्चिम में सूचना के स्रोत के रूप में इसे स्वीकार किया जाता है? वे किस हद तक सच्चाईयों को प्रतिबिंबित करते हैं?
सूचना के स्रोत को लेकर बहुत सारी बातें कही गई हैं। कुछ लोग जिन्होंने इस मुददे पर अपने विचार सामने रखे हैं वे कई बार अपने ज्ञान या अपने धर्म या विश्वास की सीमाओं के साथ बंधे दिखाई देते हैं। इसलिए उन लोगों ने एक अलग प्रकार के विचार सामने रखे हैं।
इस्लामी नजरिये के मुताबिक, तीन प्रकार के स्रोत हैं जिनसे सूचना एकत्र की जाती हैः
पांच ज्ञानेंद्रियों के द्वारा जो सूचना प्राप्त की जाती है या जिनका संबंध इन ज्ञानेद्रियों से होता है। जिसमें शामिल हैं, इंसान का सुनना, देखना, सूंघना, स्वाद चखना और छूना। उदाहरण के तौर पर, जो कुछ वहां दिखाई दिया या जो कुछ आपने छू कर महसूस किया।
प्रचलन के अनुसार जो केवल इस प्रकार के सूचना के स्रोत को स्वीकार करता है, उसके अतिरिक्त तरीके से अगर कोई सूचना प्राप्त की जाती है उसे ज्ञान के दायरे में नहीं समझा जाएगा। लेकिन निश्चयात्मकता का यह प्रचलन पिछले कुछ दशकों से अपना प्रभाव खो चुका है, लेकिन बीसवीं शताब्दी के आंरभ के समय में यह काफी प्रचलित था।
सूचना प्राप्त करने का दूसरा स्रोत इंसान का दिमाग है। जब दिमाग की बात की जाती है, एक ऐसी तस्वीर उभरती है जिसमें बिना पक्षपात के किसी वस्तु के शुद्ध रूप को सामने रखते हुए परिणाम निकाला जाता है और उसके लिए वस्तुनिष्ठ तरीके से फैसला लेने की क्षमता होनी चाहिए। ऐसा दिमाग जो अपक्षपाती हो, विकृत रूप से न सोचता हो और कार्यात्मक हो, सूचना के लिए बेहद आवश्यक है। आधुनिक दुनिया में तर्कवाद इसी प्रचलन की नुमाइंदगी करता है। उसकी उत्पत्ति के समय से तर्कवाद ने हमेशा दिमाग को सूचना के एक उत्तम स्रोत के तौर पर स्वीकार किया है। हालांकि, तर्कवाद ही उचित ज्ञान प्राप्त करने के लिए काफी नहीं है।
सूचना का एक दूसरा स्रोत है पुष्ट रूप से किसी घटना का वर्णन करना। उसे दो तरीके से समझना चाहिए। पहला, यह वह ज्ञान है जिसे कई लोगों के द्वारा तक पहुँचाया है और उसे सच स्वीकारा गया है। उदाहरण के तौर पर, किसी महाद्वीप या देश के बारे में बताना जिसको किसी और ने स्वयं अपनी आंखों से नहीं देखा है। इस बात को और स्पष्ट करने के लिए मान लीजिए कि कोई व्यक्ति है जो कभी आस्ट्रेलिया नहीं गया या अमेरिका, उसको लेकर अगर कोई जानकारी दी जाती है जो देने वाला अपने अनुभव के आधार पर दे रहा है। ऐसा संभव हो सकता है कि हम उन स्थानों पर न गए हों और उसे न देखा हो, लेकिन लाखों करोड़ों लोग उन स्थानों पर रहते हैं और हर साल लाखों की संख्या मं लोग वहां आते जाते हैं। जो जानकारी ऐसी लोगों से जमा की जाती है वह मजबूत होती है और उस पर विश्वास किया जा सकता है और अगर कोई वहां नहीं भी गया है तो उनके सच होने को लेकर अधिक शंका नहीं कर सकता।
दूसरी बात, पुष्ट वर्णन के दायरे में “दिव्य ईश्वरोक्ति” को रख सकते हैं। दूसरे शब्दों में, वह शब्द जो अल्लाह ने स्वयं अपने पैग़म्बरों तक पहुंचाए अपने फरिश्तों को माध्यम से, जिसमें आसमानी किताबें शामिल हैं। हजरत जिब्रील वे फरिश्ता थे जो अल्लाह का कलाम लेकर पैग़म्बर मुहम्मद या अन्य पैग़म्बरों के पास आया जाया करते थे।
दुनिया के रहस्यों को जानने के लिए और अपनी पांचों ज्ञानेंदियों के माध्यम से उनका बेहतर ज्ञान लेने के लिए, हमें उन आसमानी किताबों को सामने रखकर किसी बात का जाएज़ा लेना चाहिए। अगर इन सिद्धांतों को सामने रखकर किया जाए और विज्ञान काम करे तो उनका बेहतर परिणाम सामने आ सकता है।
इंसान के अंदर यह काबलियत नहीं है कि हर चीज को वह सुन ले और देख ले। जो कुछ दुनिया में है उन सभी बारे में जानना उसके बस की बात नहीं है। न ही उसका दिमाग इस लायक है कि उन सब को ठीक तरह से समझ सके। बहुत सी ऐसी चीजें हैं जो दुनिया में पाई जाती है मगर उन्हें हम देख नहीं सकते और न ही हमारा दिमाग उनके बारे में ठीक से समझ सकता है और न ही उस की तह तक पहुंच सकता है। इंसान केवल अल्लाह की दी गई शिक्षाओं की मदद से ही और उसकी शक्ति के बल पर ही जो उसके इर्दगिर्द फैली हुई चीजें हैं उनके बारें मों जान सकता है। वह जितना चाहता है अपनी आसमानी किताब के जरिये हमें ज्ञान पहुंचाता है और उसी तरीके से उन मामलों में हमें कुछ ज्ञान हासिल हो पता है।
नहीं तो उन आसमानी किताबों को लेकर यह आवश्यक है कि हम गदल अर्थ ग्रहण करने लगें। उसके अलावा अगर हमारी महसूस करने की क्षमता और हमारे अनुभव ही जानकारी एकत्र करने का मुख्य आधार बने रहेंगे तो फिर वह यह कहने पर मजबूर हो जाएगाः “मैं केवल उन चीजों में विश्वास करता हूं जो मुझे नजर आती हैं या सुनाई देती हैं।” इससे दिमाग हर उस चीज का विरोध जो उसको दिखाई नहीं देगी। वास्तव में ज्ञानेंद्रियों के बल पर प्राप्त किए गए ज्ञान को ही ज्ञान का उचित आधार मान लिया जाए, तो फिर इंसान जो अनुमानित ज्ञान है और अल्लाह ने जो दुनिया बनाई है वह उसके बीच अनुकूलता तलाश करने की कोशिश करेगा। इस प्रकार से उसके अपने सिद्धांत के अनुसार जो जानकारी भी हासिल होगी वह सच होगी और उसके बाहर की हर चीज गलत होगी। हालांकि अल्लाह कुरआन में फरमाता हैः हमने आसमान और जमीन की रचना करते समय इंसानों को गवाह नहीं बनाया था। (कहफ़ 18:51) अगर अल्लाह के कलाम को सामने न रखा जाए तो फिर इंसान की सारी बात उसकी अपनी कोरी कल्पना बन कर रह जाती है।
दुर्भाग्य से केवल पहले दो प्रकार से एकत्र की गई जानकारी को ही स्वीकार किया जाता है और अल्लाह के बहुत से दिव्य संदेशों को नकार दिया जाता है। विज्ञान की प्रगति के साथ ही, मां के पेट में भ्रूण जिस रूप में आकार लेता है उसे व्याख्यायित कर दिया गया है। उमर खय्याम जो कि एक अति कर्तवादी इंसान थे, उनसे जब इस आयत के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने काहा कि कुरआन का संदेश वस्तुतः इस रूप में नहीं है। कुछ दूसरे विद्वानों ने सोचा कि किसी इंसान का यकीन केवल कयामत में हो सकता है, क्योंकि दिमाग मिसाल से उसे समझाने की कोशिश की है। कयामत उस वसंत के समान है जो जाड़े के मौसम के बाद आती है। हमें कोई इंद्रिया ज्ञान नहीं होता कि ऐसा होगा बल्कि हम चीजों को देख और महसूस करके अंदाजा लगा लेते हैं कि अब वसंत आ गया है। चूंकि कुछ लोग केवल दो स्रोतों पर ही पूर्ण रूप से विश्वास कर सकते हैं तो उन्हें अल्लाह की किताब में जो कुछ जानकारी दी गई है यहां तक कि उसके बुनियादी मत को लेकर उसमें भी कुछ फेरबदल करने की आवश्यकता पड़ जाती है। उदाहरण के तौर पर, दर्शनशास्त्र के प्रभाव स्वरूप, फराबी और अलरूश्द, हालांकि दोनों अपने समय के महान ज्ञानियों में से एक थे, उन्होंने कहा कि दिव्य संदेश और पैग़म्बर इंसानों के दिमाग की अपनी उपज है।
कुछ लोग यह मान बैठते हैं कि इन दार्शनिकों का स्थान पैग़म्बरों से ऊंचा है। अल्लाह को सब मालूम था कि उसके भेजे हुए पैग़म्बर किसी प्रकार से उसके संदेशों को दुनिया तक ले जाने का काम करेंगे; यानि असाधारण कौशल के साथ। इसीलिए उन्हें पहले एक पैग़म्बर बनाया गया फिर उन्हें यह जिम्मेदारी सौंपी गई, और दार्शनिकों को यह गहरी बात आसानी से समझ में नहीं आ पाती। यह भी कहा जा सकता है कि दार्शनिक उसी बात को दुहराते रहते हैं या अपनी जबान से बयान करते रहते हैं जो उनसे बहुत समय पहले अरस्तु कह गए थे।
अगर इस्लामी दुनिया को एक पूर्ण इकाई के रूप में लिया जाए, तो हर इंसान इसके फंदे में गिरफ्तार होने से बच जाएगा। जहरावी, अली कुसकू, जलालुद्दीन दव्वानी, जेलेनबेवी, और उन जैसे दूसरे अनेक लोग इस प्रकार के फंदे का शिकार नहीं हुए। वे बड़े धार्मिक लोग थे और अपने समय में बेहद प्रभावशाली भी माने जाते थे। ऐसे लोग जैसे मोल्ला हसरो और ख्वारजमी जिन्होंने विज्ञान के क्षेत्र में बहुत काम किया और जिनके शोध कई शताब्दियों तक ज्ञान का स्रोत बने रहे और वह पश्चिम तक जा पहुंचे उन सब ने विज्ञान का काम करते हुए कभी भी अपने ईमान से समझौता नहीं किया और पूरी जिंदगी एक धार्मिक पुरूष के रूप में गुजारते रहे और वे नेक लोग थे।
सारांश के तौर पर कहा जा सकता है कि बेहतर तो यही होगा कि जानकारी के जितने सारे स्रोत हैं उन सब को एक साथ निपुणता से रखा जाए ताकि अंत में परिणाम बेहतर आए। अगर उन जानकारी के स्रोतों में किसी प्रकार का भेदभाव किया जाएगा तो उसके नकारात्मक परिणाम पूरी मानव जाति के लिए होंगे। अगर हम बार-बार यही करते रहे तो समस्या और भी भयावह होती जाएगी। लोग फिर जो गलत है उसको सच मानने के लिए विवश हो जाएंगे। लोग कुरआन को अपने ज्ञान के आधार के तौर पर इस्तेमाल करने से और फिर उसको अपने आस-पास में मौजूद ज्ञान के बल पर समझने से जिससे उसकी परतें और आसानी से खुल जाएं वह हमें सही दिशा की ओर ले जाएंगी।
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